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आहत धार्मिक भावनाओं की बात करने का असली हकदार कौन है? (आलेख : सुभाष गाताडे)

Updated on 20-10-2024 10:30 PM

क्या किसी दूसरे धर्म के प्रार्थना स्थल में बेवक्त जाकर हंगामा करना या अपने पूजनीय/वरणीय के नारे लगाना, ऐसा काम नहीं है, जिससे शांतिभंग हो सकती है, आपसी सांप्रदायिक सद्भाव पर आंच आ सकती है? इस सवाल पर कर्नाटक की न्यायपालिका एक बार फिर चर्चा में है। कर्नाटक की उच्च अदालत की न्यायमूर्ति नागप्रसन्ना की एक सदस्यीय पीठ का ताज़ा फैसला यही कहता है कि "ऐसी घटना से किसी की धार्मिक भावनाएं आहत नहीं होती हैं और मस्जिद के अंदर ‘जय श्री राम’ का नारा लगाने से धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचती है।"
उल्लेखनीय है कि पिछले साल 24 सितम्बर 2023 को कडाबा पुलिस स्टेशन से जुड़े बंतरा गांव के हैदर अली ने थाने में शिकायत दर्ज की कि उसी रात 10.50 पर कुछ अज्ञात लोग मस्जिद में घुस गए और उन्होंने ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाए। उसका यह भी कहना था कि इन आततायियों ने यह धमकी दी कि वह ‘बेअरी लोगों को छोड़ेंगे नहीं’। बेअरी तटीय कर्नाटक में निवास करने वाले एक मुस्लिम समुदाय का नाम है।
अगले दिन जब पुलिस ने मस्जिद पर लगे सीसीटीवी फुटेज की जांच की, तब उन्हें दिखा कि कुछ अज्ञात लोग मस्जिद के इर्द-गिर्द मोटरसाइकिल पर घूम रहे हैं, जिन्होंने बाद में मस्जिद में घुस कर यह शरारत की। बाद में उन्हें पड़ोस के बिलनेली गांव के कीर्तन कुमार (उम्र 28 वर्ष) और सचिन कुमार (उम्र 26 वर्ष) के तौर पर चिन्हित किया गया और स्थानीय पुलिस स्टेशन में उन पर भारतीय दंड संहिता की धारा 447 (किसी परिसर में आपराधिक इरादे से घुसपैठ), धारा 295 ए (ऐसी कार्रवाई, जिससे धार्मिक भावनाएं आहत हो सकती हैं) और धारा 505 (सार्वजनिक शांति को भंग करने वाली कार्रवाई) आदि धारा में मुकदमे दर्ज किए गए।

न्यायमूर्ति नागप्रसन्ना की अदालत के इस फैसले को लेकर एक बड़े तबके में दुख और सदमे की स्थिति है। संवेदनशील लोग इस बात को पूछ रहे हैं कि सीसीटीवी फुटेज में यह दिखने के बावजूद कि वह जोड़ी काफी देर तक मस्जिद के इर्द-गिर्द चक्कर लगाती रही, रात के अंधेरे में वह बिना वजह उसमें घुस गयी, उन्होंने धार्मिक नारे लगाए और इतना ही नहीं, एक खास समुदाय से निपटने की बात कही, अदालत उनकी इस कार्रवाई में इरादा क्यों नहीं ढूंढ़ सकी? कुछ लोगों ने यह भी पूछा कि अगर कल कुछ मुसलमान किसी मंदिर में घुस कर "अल्लाहू अकबर" का नारा लगाते हैं, तो क्या अदालत का वही रूख होगा! 

जाहिर सी बात है कि ऐसे माहौल में, जहां दक्षिणपंथी ताकतें समाज में और अधिक मतभेद पैदा करने पर तुली हुई हैं, इस फैसले का इस्तेमाल वे लोग आसानी से कर सकते हैं, जो देश में माहौल को और खराब करना चाहते हैं। हाल के समय में ऐसी तमाम वारदातें सामने आयी हैं, जब ऐसे उग्र तत्वों ने विधर्मियों के प्रार्थनास्थलों में जबरन घुस कर विवाद पैदा करने की कोशिश की है और कई स्थानों पर, इसकी परिणति सांप्रदायिक हिंसा या दंगों में हुई है। हाल में बहराइच हिंसा की घटना के लिए भी आततायी तत्वों द्वारा इसी तरह विधर्मियों के धार्मिक झंडा उतारने की घटना को जिम्मेदार माना जा रहा है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि देश के इन्साफ पसंद वकील और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता इस फैसले की छानबीन कर रहे होंगे, ताकि एक बड़ी पीठ के सामने इसे चुनौती दी जा सके और इस फैसले ने, एक तबके में जो असुरक्षा की भावना पैदा की है, वह दूर हो। वैसे उपरोक्त फैसले के जो अंश अख़बारों में भी प्रकाशित हुए है, वह बताते हैं कि अदालत ने इस मुकदमे को खारिज करने के लिए उच्चतम अदालत के सामने आए ‘महेंद्र सिंह धोनी बनाम येरागुन्टला शामसुंदर’ मामले की नज़ीर पेश की है, जो उल्लेखनीय रूप से गलत है।

अगर बारीकी से देखें, तो दोनों मामले अलग हैं। महेंद्र सिंह धोनी मामले में ‘आहत धार्मिक भावनाओं’ का केस तब दर्ज किया गया था, जब किसी पत्रिका के कवर पर उन्हें विष्णु के अवतार में चित्रित किया गया था, जिनके हाथ में संभवतः कंपनी के उत्पाद थे। धोनी के खिलाफ दायर याचिका को खारिज करते हुए जस्टिस दीपक मिश्रा, ए एम खानविलकर और एम एम शांतनगौदर की पीठ ने कहा था कि "गैरजानकारी में या लापरवाही से या बिना किसी सचेत इरादे से की गयी कार्रवाई से अगर किसी की भावनाओं को चोट पहुंचती है, तो उसे धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के लिए किए गए 'धर्म के अपमान' की श्रेणी में डाला नहीं जा सकता।" तय बात है कि मस्जिद में रात में घुस कर नारे लगाना गैर-जानकारी या लापरवाही में किया गया मामला नहीं है।

वैसे फिलवक्त जब हम इस फैसले को लेकर उच्चतम अदालत के हस्तक्षेप का या उच्च न्यायालय की बड़ी पीठ के निर्णय का इन्तजार कर रहे हैं -- यह रेखांकित करना गलत नहीं होगा कि विगत एक दशक से जब से हमारे "न्यू इंडिया" में प्रवेश करने की बात चल रही है, तब से जमीनी स्तर पर कुछ न कुछ बदला है।

आज की तारीख में, जबकि मुल्क के धार्मिक और सामाजिक अल्पसंख्यक, हिन्दुत्व की वर्चस्ववादी ताकतों के उभार से, पहले से ही अपने को घिरा हुआ महसूस कर रहे हैं, जहां सत्ताधारी जमात के लीडरान खुद धर्माधंता फैलाने के लिए, विधर्मियों के खिलाफ दुर्भावना का प्रसार करने के लिए मानवाधिकार संगठनों के निशाने पर आए हैं, इस बात की कल्पना करना मुश्किल नहीं कि ऐसे फैसले अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना को बढ़ावा दे सकते हैं और उनके अंदर असहायता का बोध पैदा कर सकते हैं। 

केन्द्र में जब से हिन्दुत्व की वर्चस्ववादी जमातों का बोलबाला बढ़ा है, सभी लोग भले ही कानूनन एक समान हों, मगर माहौल ऐसा बना है कि गाली-गलौज, नफरती नारे के लिए, यहां तक बहिष्करण का सामना कर रहे धार्मिक और सामाजिक अल्पसंख्यकों को अपनी ‘आहत भावनाओं’ की शिकायत करने में, तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। दूसरी तरफ, उनके हमलावरों को, उनके उत्पीड़कों को यह पूरी आज़ादी है कि वह अपने पीड़ितों के खिलाफ शिकायत दर्ज करें, उन्हें मारे-पीटे। धार्मिक आयोजनों के नाम पर होने वाले कार्यक्रमों में ऐसे तबकों के जनसंहार के ऐलान तक होते हैं, मगर कहीं कुछ पत्ता तक नहीं हिलता।

पिछले साल की बात है। उत्तराखंड के एक दलित युवक पर मंदिर के अपवित्र करने का केस पुलिस ने दर्ज किया था। मामले की शिकायत करने वाले कथित ऊंची जाति के कुछ लोग थे। दरअसल यह वही लोग थे, जिन्होंने चंद रोज पहले इस दलित युवक को मंदिर प्रवेश से रोका था और बुरी तरह पीटा था, जिसके चलते उन सभी पर अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून, 1989 के तहत केस दर्ज हुए थे। उधर दलित युवक अस्पताल में भर्ती था और इन वर्चस्वशाली लोगों ने पुलिस और अदालत में अपने संपर्कों का इस्तेमाल करके उसके खिलाफ यह झूठा केस दर्ज किया। वैसे यह एक बहुचर्चित और बार-बार आजमाया जाने वाला हथकंडा है, जो दबंग जातियां इस्तेमाल करती आयी हैं। 


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